सुनील पंडित

राजस्थान में ये वो दौर था जब अशिक्षा, बेमेल विवाह, बाल विवाह जैसे दंश महिलाओं को अकसर झेलने पड़ रहे थे। ऐसे में महिलाओं के मन के किसी कोने में अगर भक्ति की चिंगारी लग भी जाती तो परिस्थितियां उसे जल्द ही फायर ब्रिगेड की तरह बुझा देती थी। वैसे कहा तो यह जाता है कि परिस्थतियों में इंसान या तो निखरता है या बिखरता है। ऐसा ही मीरा बाई के साथ भी हुआ और भूरी बाई के साथ भी। मेवाड़ में इस अशिक्षित महिला भूरी बाई को दूसरी मीरा कहा जाता है। मेवाड़ की इस मीरा ने अपने गिरधर गोपाल को भले ही अपने दिल में बसा लिया हो लेकिन ख्याति दूर-दूर तक नहीं मिली। अाज हम आपको बता रहे है ऐसे ही भक्तिमती मीरा बाई भूरी बाई के बारे में। 

भूरी बाई का जन्म राजसमंद जिले के लावा सरदारगढ़ में सुथार परिवार में हुअा। बचपन में ही बेमेल विवाह हो गया। इसके कुछ दिन बाद पति की असामायिक मृत्यु से भूरी बाई के जीवन में मानो भूचाल आ गया। संसार से विरक्त मन में भक्ति की उत्कंठ इच्छा जगी तो भूरी बाई के तत्वज्ञान ने बड़े से बड़े विद्वानों को कायल कर दिया। अध्यात्म जगत में भूरीबाई के नाम, उनकी भक्ति और ज्ञान की प्रसिद्धि पाकर ओशो रजनीश जैसे विश्व प्रसिद्ध चिंतक व दार्शनिक भी उनसे मिलने आने लगे। ओशो ने भूरीबाई की भक्ति व दर्शन की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। विख्यात संत सनातन देवजी और कई दार्शनिक, ज्ञानी, भक्त, महात्मा, कई रियासतों के ठाकुर, अन्य खास व आम लोग बिना बुलाए इस साधारण सी अल्पशिक्षित महिला से बार-बार मार्गदर्शन हेतु आने लगे। उनकी चर्चा का माध्यम प्रायः मेवाड़ी बोली ही रहती थी। भूरी बाई सभी को चुप रहने को कहती। उनका यह विचार एक दोहे के रूप में बहुत लोकप्रिय हो गया-

चुप साधन चुप साध्‍य है, चुप मा चुप समाय।
चुप साध्‍यां री समझ है समझियां चुप व्‍है जाय।।

जीवन परिचय : महात्मा भूरी बाई अलख का जन्म राजसमन्द जिले के लावा सरदारगढ़ गांव में संवत् 1949 में आषाढ़ शुक्ला 14 को एक सुथार परिवार में हुआ। माता का नाम केसर बाई और पिता का नाम रूपा जी सुथार था। तेरह वर्ष की अल्पायु में भूरी बाई का विवाह नाथद्वारा के एक अधेड़ आयु के धनी चित्रकार फतहलाल जी सुथार के साथ कर दिया गया। इस विभूति का देहावसान 3 मई 1979 ई., वैशाख शुक्ला 7 संवत् 2036 को हुआ। अध्यात्म जगत में वे आज भी लोकप्रिय है। उनके देहावसान के बाद भी नाथद्वारा स्थित उनके छोटे से आश्रम पर प्रति सप्ताह लोग सत्संग करने आया करते हैं। उदयपुर के डॉ. लक्ष्मी झाला ने महात्मा भूरीबाई के जीवन-दर्शन पर ‘‘सहज साधना सन्त परंपरा के परिप्रेक्ष्य में मेवाड़ की महात्मा भूरी बाई का दार्शनिक विवेचन’’ शीर्षक से शोध करके पुस्तक लिखी है और पीएचडी की।

‘भूरी बाई’ सबको कहती ‘‘चुप’’


महात्मा भूरीबाई विचारों से अद्वैत की परम समर्थक थी। भूरीबाई दार्शनिक चर्चा में ज्यादा विश्वास नहीं करती थीं। उनका अपनी भक्त-मंडली में एक ही निर्देश था- ‘‘चुप’’। बस चुप रहो और मन ही मन उसे भजो, उसमें रमो। बोलो मत। ‘चुप’ शब्द समस्त विधियों का निषेध है। बोलने-कहने से विभ्रम पैदा होता है, बात उलझती है और अधूरी रह जाती है। इसीलिए ब्रह्मानन्द को अनिर्वचनीय माना गया है। उसे अनुभव तो किया जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। ‘भूरी बाई’ सबको कहती ‘‘चुप’’! बोलो मत, उसे ध्याओ, उसमें रमो, उसको भजो! बाकी सब बेकार।

ओशो को अपने हाथों से खिलाए थे आम

पाली जिले के मूंछाला महावीर स्‍थान पर ओशो शिविरार्थियों से चर्चा करने आते थे। गर्मियों के दिनों में लगे एक शिविर में तो बाई आम लेकर पहुंची। बाई ओशो को पके हुए आम प्रस्‍तुत करती। ओशो आम को चूसकर रख देते और बाई उनको दूसरा थमा देती। टोकरी भर आम थे। जब आेशो काे ध्‍यान आया कि वे जो आम चूस रहे थे, वह गया कहां। कौन बताता भला। वे सारे के सारे आम बंटकर प्रसाद हो गए थे…। एक बार ओशो ने बाई से कुछ लिखने के लिए कहा तो उन्‍होंने ‘कालीपोथी’ लिखी। बड़ी अनोखी थी यह पोथी। उन्‍होंने कुछ कागज़ मंगवाए और उनको पूरी तरह काजल से पोत दिया। कहीं कुछ दिखाई न दे ऐसा। और, मुखपृष्‍ठ पर बाई ने लिखवाया – राम। इस पोथी के महत्‍व को भाषा दी थी ओशो ने अपने प्रवचन में। भूरीबाई ने पूरा जीवन मौन के महत्‍व के साथ जिया। कोई कुछ पूछता, पत्र लिखकर जवाब भी मांगता तो बाई मौन का महत्‍व ही बताती। श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा में आज भी बाई की अपनी मां जैसी पहचान है।

क्या था भूरी बाई के चुप साधन का रहस्य

भूरी बाई की भक्ति अभी तक की नवद्या भक्ति में अलग ही थी। भूरी बाई सभी को चुप रहने को कहती थीं। वो कहती कि सभी पाप और अज्ञान की जड़ जीभ ही है। किसी को कुछ मत बोलो और मन ही मन शांत हो जाओ। एक सधे सब सधे, सब साधे 100 सधे। यानि भूरी बाई अपने अंदर की आत्मा को साधने को कहती। सूफी मत में एक किताब अति प्रसिद्ध है जिसे कौरी किताब कहते है। कहा जाता है कि उस में कुछ भी लिखा हुआ नहीं होता। उस किताब के सारे पन्ने खाली होते है। और देखते देखते सूफी फकीर ईश्वर को उपलब्ध हो जाते है। ऐसी ही भूरी बाई की किताब थी उसका नाम था काळी पौथी। बिल्कुल काली किताब। जो भी भक्ति के बारे में भूरी बाई को कुछ कहने के लिए कहता भूरी बाई उससे काळी पौथी थमा देती। था उस किताब में कुछ भी नहीं मगर वो साधक को चुप सिखाती थी।