जानिए जल का महत्व और जलझूलनी एकादशी पर भगवान के जल में झूलने की मान्यता
(फोटो : सुरेश भाट, साल-2019) 

-सुनील पण्डित
हिन्दू शास्त्रों में 24 ग्यारस की अपनी अपनी मान्यता है और अपनी अपनी आस्था। मगर 2 अनूठी एकादशी का अपना अलग ही रस है, जिसे हम निर्जला ग्यारस और सजला ग्यारस के नाम से जानते है। यूँ कहे गर्मी के आसपास आने वाली निर्जला ग्यारस जल को बचाने पर जोर देती है तो सजला ग्यारस जल के महत्व को रेखांकित करती है। हालांकि दोनों का अर्थ एक ही है कि हम जल के महत्व को समझे। हम आज बात करेंगे जलझूलनी ग्यारस की और जल की। 
जल बिन सब सुन……..
पंच तत्व में जल सबसे महत्वपूर्ण कारक है। ये वो घटक तत्व है जिसके बिना हम न वायु की कल्पना कर सकते न शरीर की। कभी सोचा है आपने कि जल नहीं हुआ तो क्या होगा। चलिए मेरे साथ मैं बताता हूँ जल महिमा अनन्त अनन्ता। जल के बिना प्रकृति की कल्पना अधूरी है। पेड़-पौधों की सरसराहट से लेकर पहाड़ों पर बहते झरने की कलकलाहट तक में इसका अहम रोल है। यहां तक कि हमारे नश्वर जुबान की बकबक और पक्षियों की चरचराहट में जल नहीं तो कुछ नहीं वाला मामला है। इसलिए दीवारों पर नारे लिखे मिल जाएंगे जल नहीं तो कल नहीं। सतयुग से लेकर कलयुग की इस यात्रा में जल के प्रति कृतज्ञता हमने अलग अलग ढंग से प्रकट की। धर्म ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिलता है। कहते है भगवान कृष्ण एक बार खेल रहे थे कि एक नदी में उनकी गेंद घूम हो गई। उस नदी में कालियानाग नाम का एक अत्यंत भयंकर नाग रहता था। भगवान कृष्ण ने न केवल कालियानाग के अहंकार को चूर चूर किया बल्कि उसके फन पर नृत्य करके उन्होंने ये भी बताया कि डर इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है। इसके बाद गांव के लोगों ने नदी की और भगवान कृष्ण की विधिवत पूजा की। हमारे मेवाड़ में जल के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अनूठा पर्व मनाया जाता है। जिसे हम जलझूलनी एकदशमी कहते है। ये जन्माष्टमी के ठीक बाद आती है। यानी जन्माष्टमी पर भगवान का जन्म होता है और इस दिन भगवान पहली बार गंगा यानी जल में लोटन करते है। वो पहली बार जल को निहारते है और कहते है गंगा तेरे बिना सृष्टि उसी तरह अधूरी रहती होगी जैसे मैं राधे के बिना अधूरा हूं। फिर गंगा भगवान के पहले चरण पखारती है और बाद में अपने जल से उबटन करती है। विज्ञान कहता है कि नदी, पोखर, सागर में फैला पानी बस उस वक्त तक गन्दा है जब तक सूरज अपने आँचल में न छुप जाए। सूरज की पहली किरण जैसे ही नदी, पोखर, सागर पर गिरती है अपने साथ सारी गंदगी समेटकर ले जाती है। हो सकता है कि हर रोज भगवान नहाने आते हो और सूरज सफाईकर्मी की तरह सफाई कर के चला जाता है। इसलिए अपने स्नान किया हुआ जल हमारे अन्तर्मन को शीतलता प्रदान करता है। तो जलझूलनी पर भगवान का चल विग्रह (शालिग्राम) पहली बार निज मन्दिर से निकलकर सरवर झूलने जाता है। इसको ऐसे भी समझ सकते है कि बच्चा जन्म लेने के बाद पहली बार 10 दिन, 12 दिन या 15 दिन जो भी ज्योतिषी गणना हो उसके हिसाब से नहाता है। हमारे यहां सूरज पूजना कहते है। उस दिन श्रीमान कवासजी (सेन भगत) की धर्म पत्नी अपने यजमान के यहां जन्मे शिशु को नहलाती है और बच्चे की माँ के हाथों सूरज का पूजन करवाती है। इस अनुष्ठान में 16 बावड़ी का पानी, अलग अलग हरियाली आदि का उपयोग किया जाता है। इसके बाद नित्य बच्चे को नहलाने का विधान शुरू होता है। अक्सर ये विधान किसी पण्डित से नहीं बल्कि बुजुर्ग महिला और खासकर नानी के नेतृत्व में पूरा होता है। मेरा मानना है कि ये विधान जल के प्रति पहली बार आभार प्रकट करने आ अवसर है। भगवान को पहली बार नहलाने के लिए पूरा गांव शामिल होता है और धूमधाम से उनको नहलाने के साथ जल का आभार प्रकट किया जाता है। मैं ये भी दावा करता हूँ कि एकादशी वर्षा ऋतु की विदाई की वेला का सन्देशा लेकर आती है। इस एकादशी को तब ही उत्सव के साथ मनाया जा सकता है जब गांव के सारे पोखर, तालाब, नदी-नाले, जलाशय भरे हो। बाकी ये यात्रा फीकी फीकी सी लगने लगती है। ये साल भर के उत्सव का गोचर है। ये बताता है कि आने वाले सारे उत्सव फीके होंगे या रंगीन। क्यों कि बारिश के बिना उत्सव मनाए जाने की कल्पना ही अधूरी है। इसलिए जलझूलनी एकादशी भगवान के दर्शन देने और हमारा प्रकति को आभार देने का उत्सव है। इसलिए कहता हूं जल बिन सब सुन…….
पानी से ही छलकता है उत्साह
प्रसिद्ध इतिहासकार श्रीकृष्ण “जुगनू” अपने एक बहुत पुराने आर्टिकल में लिखते है कि-भादौ का महीना और जलझूलनी ग्यारस या सजला एकादशी की कथा मान्यता जो भी हो लेकिन यह मूलत: नवीन जल से भरे या छलके जलाशयों के पूजन की उस परम्परा का रूप है जो “वरुणमह” या “समुद्रमह” के रूप में विकसित हुआ। ऐसे कई महों की अनेक स्मृतियां गीता, हरिवंश, महाभारत, काश्यप संहिता आदि में मौजूद है।
इसी में बाद में इन्द्रध्वज विधान का विलय हुआ जो शुंग कुषाण काल से लेकर गुप्तकाल तक वसु उपरिचर के उत्सव के रूप में खूब मनाया जाता। दसवीं सदी के बाद यह उत्सव वैष्णव परम्परा के आधार को लिए सामने आया। हालांकि उसमें भी चल विग्रह यानी शालग्राम की स्नान यात्रा जुड़ी और अखाड़ों ने ताल ठोकी।
आज भी झल्लरी, दुंदुभी, मंजीरे, इकतारा, ढोल जैसे बाजे, ध्वज, पताका, चामर, छत्र, मेघा डंबर जैसी सज धज और देवविमान लिए सरोवर तक जाने, छने हुए स्वच्छ जल में नारियल, कदली, अमरूद आदि फल चढ़ाकर देवराज इन्द्र का आभार जताने, नवीन जल में शालग्राम को झिलाने – नहलाने की परिपाटी है। यह नीर के नीराजन की निराली परम्परा है…।
लेकिन, इस सबके पीछे गांव गांव जलस्रोत होने, उनके संरक्षण, शुद्धिकरण, जल के ऊपर नीचे निर्बाध प्रवाह को यथारूप रखने का बहुत बड़ा सोच भी है जिसे कोई कहता नहीं लेकिन इस विरासत को समझा तो जा सकता है : नीर से ही नर – नारी, नारायण और नारायणी है। 
मैं इस पर्व को इसी रूप में देखता आ रहा हूं…।