मेवाड़ी में 18 ग्रंथ लिखे, पंतजलि और वाल्मीकि की परंपरा को बढ़ाई आगे
रेंहट फरे चरक्यो फरे, पण फरवा में फेर।
वो तो वाण हरयो करे, वो छूता रो डेर।।

Sunil Pandit (TheUdaipurUpdates)

मेवाड़ में शिक्षा की अलख जगाने की बात हो चाहे समाज में फैली कुरितियों पर कबीर की तरह प्रहार करने की बात हो हर जगह बावजी हजूर चतुर सिंह जी का नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है। उन्होंने ठाकुर गुमान सिंह जी के शिष्यत्व में ऐसी शिक्षा अर्जित की कि आगे चलकर उनका ज्ञान, आध्यात्म और योग पंतजलि और वाल्मीकि की परंपरा को आगे बढ़ाने वाला बन गया। उनका वैराग्य ऐसा था कि राजसी परिवार के होते हुए भी उनको बांध नहीं पाया। सारे ठाठ-बाठ छोडक़र बावजी (चतुर सिंह जी) महलों से उस रास्ते पर निकले. उनको ऐसा साहित्य शिल्प माना जाता है जिसने एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन जिया और उपदेशक, संत, लेखक, कवि के रूप में अपनी ख्याति का प्रकाश दूर-दूर तक फैलाया। बावजी पगरखी, धोती, पछेवड़ी और मेवाड़ी पगड़ी धारणने करने वाले ऐसे संत थे जिनके चादर की सलवटों में सुकून ही सुकून पसरा रहता था। उन्होंने जो अनूभूव किया वो आज भी उनके साहित्य में ढूंढा जा सकता है। वे पाखंड, आडंबरों, दिखावे से कोसो दूर रहे। मेवाड़ में तो उनकी ख्याति कबीर के समकक्ष थी। अपने साहित्य में बावजी ने संस्कृत, मेवाड़ी, ब्रज और हिन्दी का ऐसा रसायन तैयार किया कि जिसे पीकर साहित्यप्रेमी का मन ईश्वर भक्ति में झंकृत हो उठता है। बावजी की उम्दा लेखनी में इतनी सादगी, संजीदगी, गंभीरता और ठहराव था कि बिना दोहे बोले आज भी गांवों में चौपालों पर होने वाली सभाएं, मेल-मिलाप, सामाजिक आयोजन रसहीन लगते है।


कबीर जैसी चोट, मीरा जैसी भक्ति


उनके लिखे दोहों, पदावलियों, दोहवालियो में कबीर, मीरा, नानक, दादू, रज्जब जैसी चोट है तो, उनकी भाषा में वही सरलता, भावों में वही गंभीरता। वे अपने काव्य में रेल, हवाई जहाज, फोनोग्राम आदि प्रतिकों का सुंदर ढंग से उपयोग करते कि पढऩे वाले को खुद की आपबीती का आभास होता। बावजी ने ब्रज, संस्कृत, मेवाड़ी और हिंदी का उपयोग करते हुए मूल मेवाड़ी में कुल 18 ग्रन्थों की रचना की। इनमे मेवाड़ी बोली में लिखी हुई गीता पर गंगा-जळी टिका सबसे उत्तम और अनूठी पुस्तक है। बावजी की कलम समाज सुधार, शिक्षा, भक्ति, वैराग्य, संसार की नश्वरता आदि पर ऐसी चली की आज तक उनका कोई मुकाबला नहीं कर पाया। वीर कुल में जन्म होने के करना बावजी वीररस से भी अपने आप को अलग नही कर पाए। हृदय में जोश, उत्साह और जज्बे का संचार भी उनकी नीति, वैराग्य और उपदेशपरक कविताओं में अनान्यस ही हो जाता है। प्राचीनता के प्रेमी होने के कारण आधुनिक शिक्षा, सभ्यता और शिष्टाचार के खिलाफ थे। उनकी रचनाओं में ईश्वर ज्ञान और लोक व्यवहार का सुन्दर मिश्रण है। कठिन से कठिन ज्ञान तत्व को हमारे जीवन के दैनिक व्यवारों के उदाहरणों से समझाते हुए सुन्दर लोक भाषा में इस चतुराई से ढाला है कि उनके गीत, उनमें बताई गई बात एक दम गले उतर कर हृदय में जम जाती हैं, मनुष्य का मस्तिष्क उसे पकड़ लेता है।


जीवन परिचय : मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के तृतीय पुत्र बाघसिंह के वंश में महाराजा सूरतसिंह ठिकाना करजली के घर मां कृष्णकंवर की गर्भ से महाराज चतुर सिंह जी बावजी का जन्म वि.सं. 1936 माघ कृष्णा चतुर्दशी सोमवार 9 फरवरी 1880 को हुआ। आप महाराणा फतेहसिंह के भतीजे और कार्तिशेष महाराणा भगवत सिंह के पिता थे। बावजी का विवाह जयपुर के छापोली ठिकाने में शेखवातजी के साथ हुआ। उनकी पुत्री सायकंवर का विवाह गुजरात के विजयनगर के महाराजा हमीर सिंह के साथ हुआ था। आषाढ़ कृष्ण नवमी वि.सं. 1986 यानि 1 जुलाई 1929 को असार संसार से उनका निर्वाण हुआ था।
अपने गुरु से था अथाह लगाव
महाराज साहब की धर्मपत्नी का देहांत होने के छोड़े दिनों के बाद उनकी एकमात्र पुत्री भी चल बसी। फलत: बावजी का झुकाव ईश्वर के प्रति बढ़ गया। बचपन के संस्कार और समय की चोट से बावजी की प्रतिभा नीखरने लगी। योगाभ्यास करने के लिए वे नर्बदा नदी के तट पर रहने वाले योगी कमल भारती के पास पहुंचे। उन्होंने बाठरड़ा के रावतजी दलेल सिंह के भाई गुमान सिंह जी को गुरु बनाने की सलाह दी। उत्कंठ इच्छा शक्ति देखकर गुमान सिंह जी ने उनको अपना शिष्य बनाया। वे सुखेर में एक झोपड़ी बनाकर रहने लगे थे। बावजी ने दोहो में गुमना, गुमान और काका कहकर अपने आप को गुरु से जोड़े रखा।
बावजी के लिखे साहित्य
चतुर प्रकाश, हनुमत्पंचक, अंबिकाष्टक, शेष चरित्र, चतुर चिंतामणि : दोहावली/पदावली, समान बत्तीसी, शिव महिम्न: स्तोत्र, चंद्रशेखर स्तोत्र, श्री गीताजी, मानव मित्र रामचरित्र, तुही अष्टक, अनुभव प्रकाश, हृदय रहस्य, अलख पचीसी, बाळकां री वार, बाळकां री पोथी, लेख संग्रह, सांख्य कारिका, तत्व समास, योग सूत्र आदि।