गीता प्रेस गोरखपुर से निकलने वाली पुस्तक कल्याण के संपादक हनुमान प्रसाद पौद्दार लिखते है कि योगीवर्य महाराज चतुर सिंह जी जैसा विरला, विधि संवत और व्यवहार कुशल दूसरा संत कोई नहीं हुआ। उनकी वाणी में गजब की दिव्यता थी और उनकी दिव्यता में गजब की चमक। बावजी का व्यक्तित्व, उनकी सादगी, रहन-सहन और उनका ज्ञान कुंदन की मानिंद चमकता था। 

बावजी महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के तृतीय पुत्र बाघसिंह के वंश से आते थे। उनको जन्म वि.स 1936 माघ कृष्ण चतुर्दशी सोमवार 9 फरवरी 1880 को महाराणा सूरतसिंह जी ठिकाना करजाली के घर मां कृष्णकंवर की कोख से हुआ। बावजी हजूर महाराणा फतहसिंहजी के भतीजे तथा कीर्तिशेष महाराणा भगवत सिंह के पितृव्य थे। उनका विवाह जयपुर के पास छापोली ठिकाने में शेखावतजी के साथ 29 वर्ष कर आयु में हुआ था। उनकी इकलौती बेटी का नाम सायरकंवर था, जिनका विवाह गुजरात के विजयनगर के महाराज हमीर सिंह के साथ संपन्न हुआ।  

बावजी का मन बचपन से ही सांख्य, वेदांत, न्याय, ईश्वर भक्ति से संबंधित साहित्य पढऩे में लगा रहता था। आयु के साथ-साथ मानसिक व कवित्य शक्तियां बावजी में उफान पर आने लगी। इसी बीच महाराज साहिब की धर्मपत्नी का देहांत हो गया। थोड़े दिनों के बाद उनकी एकमात्र पुत्री भी ईश्वर को प्यारी हो गई। इन्ही दो घटनाओं ने बावजी की आंतरिक वृत्तियों ने ईश्वर की शरण स्वीकार कर ली। मने बचपन में जिस चतुर नाम के पेड़ को कोई साहित्य की घूंट-घूंट देकर पोषित पल्लवित कर रहा था वहीं पेड़ वृक्ष बनकर खड़ा हो गया। बावजी के झीणे-झीणे कदम अब नर्मदा नटी के तट पर बनी कमल भारती की कुटिया तक जा पहुंचे। वहां उन्होंने योगाभ्यास करने की इच्छा जाहिर की। परंतु कमल भारतीजी ने इस आग को फिर मेवाड़ की तरफ मोड़ दिया। कमल भारतीजी ने बाठरड़ा के रावतजी दल्ले सिंह जी के भाई गुमान सिंह जी को गुरु बनाने की बात कही। महाराज श्री हजूर चतुर सिंह जी दाता गुमान सिंह जी दाता के पास पहुंचे और उन्होंने सारी बात बताई। महाराज साहिब की उत्कंठ लालसा से मोहित होकर दाता हुकुम गुमान सिंह जी ने उनको राजराजेश्वर योग का उपदेश दिया। वहां से आने के बाद बावजी श्री घर पर ही रहने लग गए। बाद में शहर के बाहर सुखेर नामक गांव में एक झोपड़ी बनाकर रहने लगे। बावजी का हृदय उदार और सरल था। वे आडंबर और पाखंड से कोसो दूर थे। पैरों में पंगरखी, धोती-अंगरखी, मेवाड़ी पाग और पछेवड़ी में रहने के कारण उनकी सादगी के चलते लोग मुरीद होकर खिंचे चले आते। उनकी वाणी में मधुर रसायन था। उनकी भाषा भावपूर्ण, प्रभावशाली और सरल होने के कारण आमजन के हृदय में जाकर या तो बर्फ की माफिक जम जाया करती थी या जाकर सीधे धावा बोलती थी। बावजी कठिन से कठिन विषय को सरल शब्दों में ढालकर ऐसे समझा देते जैसे कोई लोहे से पतकर लोहा औजार बनता है। बावजी के शब्दों में कबीर जैसी चोट, मीरा जैसी भक्ति, नानक जैसा वैरागय और दादू जैसी मस्ती थी। बावजी ने छोटे-बड़े कुल 18 ग्रंथ लिखे। इसमें मेवाड़ी में लिखी हुई गीता पर गंगा जळी टीका सबसे उत्तम और अनूठी पुस्तक है। फुटकर कविताओं में बावजी ने समाज सुधार, शिक्षा, भक्ति, वैरागय, संसार की नश्वरता पर 180 की स्पीड मेंटेन कर कलम को जमकर चलाई। 

उनकी चेतावनी इस प्रकार होती थी कि –

अेक दिवस मरी हैं अवस, निजवस परवस होय।

कैसे तव आशा विवश, दियो मनुष तन खोय।।

यहै झमेला पलक का, फैर सहेला शूल।

अरे अकेला आय कै, मेला में मत भूल।।

बावजी एक ही शब्दों का दो बार बड़ी कलाकारी से उपयोग करते थे। वो कहते थे कि

फटे चाम के टोकरा, भरै विविध मल भार।

मेला देखै तूं कहा, मेला देख विचार।।

सबसे बड़ी बात ये है कि उनका जन्म वीरभूमि मेवाड़ के एक वीर कुल में था इसलिए बावजी चाहकर भी वीर रस की कविताओं से बच नहीं सके।

खोटां री छाती पर खटकै, हाल हाथ रा भाला।

एकलिंग रै रिया आसरै, दिया दुशमणां टाळा।

उनकी आत्मीय का अंदाजा हम इस बात से लगा सकते है कि वे स्वयं राज परिवार के होते हुए भी सामान्य किसान डांगी परिवार के किकाजी डांगी से मिलने घोड़े पर बैठकर नऊवा आते थे। बाद में बावजी नऊवा की खानु मंगरी में ही रहने लग गए। वहीं पर रहकर असंख्य दोहे, पदावलियां और भजन लिखे। जो आज भी मेवाड़ में जनमानस की सोई हुई आत्मा को जागृत करने का काम करते है।

ब्रज में बावजी लिखते थे कि-  

सबते ऊंचो हरि कियो, ऊंचे कर गिरधार।

तासो ऊंचो आन कह, ताको नीच विचार।।

ज्यों ज्यों उतरत जमुन जल, पान करन सोपान।

त्यों त्यों चढ़त प्रवीन नर, प्रभु पावन को पान।।

इसके अलावा नीति, वैराज्य और उपदेश की ऐसी कविताएं लिख गए कि उनको पढक़र, सुनकर मन में जोश, उत्साह और जज्बे का संचार होता है। बावजी संस्कृत के अच्छे जानकार थे इसलिए उनको मेवाड़ी मार्तंड कहा जाता है। साहित्य के इस पूजारी, ईश्वर के अनन्य भक्त, पारंगत विद्वान, अनूठे योगी, विरले संत ने आषाढ़ कृष्णा नवमी वि.स 1986 दिनांक 1 जुलाई 1929 को इस असार संसार को विदा किया। लेकिन मेवाड़ के लिए वो इतना साहित्य छोडक़र गए कि युगों-युगों तक दुनिया उनको बावजी राज के नाम से जानती रहेगी।