Sunil Pandit @ Editor, TheUdaipurUpdates
मेवाड़ का पहला साहसिक आंदोलन, बिजौलिया आंदोलन भावना से भडक़ी आग का नाम है
खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से बहादुरी का अतुलनीय बहादुरी का प्रदर्शन करने वाले योद्धा अशोक परमार को माना जाता है। इस बहादुरी पर खुशी होकर राणा सांगा ने उनको ऊपरमाल की जागीर भेंट की। बिजोलिया उस समय इसी ऊपरमाल जागीर का एक ठिकाना हुआ करता था। इसकी स्थापना अशोक परमार से मानी जाती है। लेकिन बिजोलिया इसके अलावा भी एक वजह से माना जाता है वो है और वो है बिजोलिया का किसान आंदोलन।ये आंदोलन नहीं एक आग थी जो किसानों ने भले ही फूंकी हो लेकिन मेवाड़ में अंग्रेजों के खिलाफ ये पहला साहसिक विद्रोह था। विजयवल्ली से बिजोलिया हुआ ये नाम कभी उदयपुर राज्य की प्रथम या अ श्रेणी की जागीरों में आता था। वर्तमान में बिजोलिया राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में स्थित है। यहां धाकड़ जाति की संख्या अधिक है। कहते है कि 1894 में राव कृष्ण सिंह को बिजोलिया का नया जागीरदार बनाया गया था। उन्होंने जागीर प्रबंधन में कई बड़े बदलाव करवाए। इन बदलावों की वजह से असंतुलन पैदा हो गया और किसानों में असंतोष बढ़ता गया। उस समय भू-राजस्व की राशि कई गुना बढ़ा दी गई जिस वजह से बिजोलिया के किसान भडक़ गए। भू-राजस्व इक_ा करने के लिए ठिकाने के लोगों द्वारा किए गए अत्याचारों की वजह से किसानों का ठिकाने पर से विश्वास उठ गया। ठिकानेदार अपनी सुख-सुविधा और अपने खजाने को बढ़ाने के लिए मनमर्जी से बेगार करवाने लगे। कुछ बेगार तो इतने अमानवीय थे कि जिनकी वजह से कई किसानों की मृत्यु हो गई। बिजोलिया किसान आंदोलन तीन चरणों में हुआ।
पहला चरण : पहला चरण 1897 से 1950 तक चला। पहले चरण में यह किसान आंदोलन स्थानीय नेतृत्व की वजह से आगे बढ़ता रहा। अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने के बाद बिजोलिया की जागीरदारों जनता के बीच संबंधों में असंतुलन पैदा होने लगा। 1897 में किसानों ने गंगाराम धाकड़ के पिता के मृत्यु भोज पर गिरधारीपुरा में सामूहिक रूप से विचार-विमर्श करने के बाद नानजी और ठाकर पटेल को उदयपुर भेज कर ठिकाने के जुल्मों के खिलाफ महाराणा से शिकायत करने के लिए उदयपुर भेजा लेकिन शिकायत करने के बावजूद भी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। किसानों के इस फैसले से राव कृष्ण सिंह गुस्सा हो गए और उन्होंने नानजी और ठाकर पटेल को गांव से निर्वासित कर दिया। गांव वालों को सबक सिखाने के लिए कृष्ण सिंह ने एक नया चंवरी कर लगा दिया। इस कर ने किसानों को आर्थिक रूप से और कमजोर कर दिया। कृष्ण सिंह सिंह की मौत के बाद पृथ्वी सिंह नया जागीरदार बना। उसने नया कर तलवार बंधाई किसानों पर थोंप दिया। कृष्ण सिंह ने और भी ज्यादा निर्दयतापूर्वक अवैध करों की वसूली करना शुरू कर दिया। इस बार बिजोलिया की किसानों ने फतहकरण चारण, ब्रह्मदेव दाधीच, नाथूलाल कामदार, रामजीलाल सुनार और साधु सीताराम दास के नेतृत्व में अपना विरोध शुरू किया और किसी भी तरह की खेती करने से मना कर दिया। इस बार किसान पहले से भी ज्यादा संगठित थे और लगभग पन्द्रह हजार किसानों ने कोई खेती नहीं की। पृथ्वी सिंह के मरने के बाद उसका छोटी आयु का बेटा केसरी सिंह बिजोलिया का नया जागीरदार बना। केसरी सिंह की आयु छोटी होने की वजह से बिजोलिया दरबार ने अमर सिंह राणावत और डूंगरसिंह भाटी को केसरीसिंह का प्रधान सलाहकार और उप प्रधान सलाहकार बनाया।
दूसरा चरण : दूसरा चरण 1916 से 1922 चलता रहा। दूसरे चरण में किसानों में नई चेतना जागृत हुई और दूसरे चरण का नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर के प्रशिक्षित और अनुभवी नेताओं ने किया। इस चरण में बिजोलिया किसान आंदोलन जातिगत और क्षेत्रीय सीमाओं से बाहर निकल कर राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जुड़ गया। इतना ही नहीं इस चरण में इस आंदोलन की चर्चा राष्ट्रीय स्तर के राजनैतिक मंचों पर भी होनी शुरू हो गई थी। जनवरी 1915 में विजय सिंह पथिक जिनका असली नाम भूप सिंह था, रासबिहारी बोस के कहने पर राजस्थान आए थे। क्योंकि ब्रिटिश पुलिस उन्हें हर संभव पकडऩे की कोशिश में लगी हुई थी। यहीं पर पथिक बिजोलिया के कुछ किसानों के संपर्क में आए। इसके बाद पथिक अपने मित्र ईश्वरीदास के घर बिजोलिया आ गए। यहां आकर उन्होंने विद्या प्रचारिणी सभा की स्थापना की। इस काम में उन्हें उप सलाहकार डूंगरसिंह भाटी का काफी सहयोग मिला। सभा के माध्यम से उन्होंने बिजोलिया के विद्यार्थियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया वहीं दूसरी ओर किसानों को संगठित करने का काम भी किया। 1916 में साधु सीताराम दास के कहने पर विजय सिंह पथिक बिजोलिया आंदोलन से जुड़ गए। विजय सिंह पथिक ने ही बिजोलिया किसान आंदोलन को एक संगठित रूप प्रदान किया। पथिक ने ऊपरमाल का डंका का नाम से मेवाड़ी भाषा के पत्र भी लोगों के बीच बंटवाए। इसमें किसानों के संघर्षों का विवरण होता था। 1917 में पथिक जी ने ऊपरमाल पंच बोर्ड का गठन किया। पथिक जी के नेतृत्व में धीरे-धीरे यह किसान आंदोलन तीव्र होता गया जिसके जवाब में ठिकाना और राज्य दोनों ने मिलकर इस आंदोलन को दबाने के प्रयास भी तेज कर दिए। पथिक जी ने माणिक्य लाल वर्मा को कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में भेजा और खुद 1918 में गांधीजी से मिलने बंबई गए। किसानों का हौसला तोडऩे के लिए ठिकाने ने कई किसानों को जेल में डालना शुरू कर दिया। 1919 में पथिक जी ने वर्धा में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की और साथ ही राजस्थान केसरी से नाम से एक पत्र भी निकाला। बिजोलिया किसान आंदोलन को उग्र होते देख ब्रिटिश सरकार ने राजस्थान के एजीजी रॉबर्ट हॉलैंड और कुछ लोगों की समिति बिजोलिया भेजी। यहां पर रॉबर्ट हॉलैंड ने 1922 को किसानों और ठिकाने के बीच एक समझौता करवाया। दसमें किसानों की सारी मांगे मान ली गई, किसानों के सारे मुकदमे हटा लिए गए। उनकी जमीन उन्हें सौंप दी गई और गिरफ्तार लोगों को रिहा कर दिया गया। लेकिन यह समझौता भी ज्यादा वक्त तक टिक नहीं पाया।
तीसरा चरण : तीसरा चरण 1923 से 1941 तक जारी रहा। बिजोलिया किसान आंदोलन जिस उत्साह और गति के साथ लोगों के बीच में फेल कर आम लोगों तक पहुंचा जा रहा था, इसका अंत वैसा नहीं हुआ जैसा इससे जुड़े लोगों ने सोचा था। इसी बीच बेंगू किसान आंदोलन की वजह से पथिकजी को पांच साल की जेल की सजा हो गई और बिजोलिया किसान आंदोलन की सारी जिम्मेदारी माणिक्य लाल वर्मा पर आ पड़ी। इसी दौरान बिजोलिया में भारी बारिश की वजह से सारी फसलें नष्ट हो गई लेकिन फिर भी ठिकाने ने किसी भी तरह के कर में कोई रियायत नहीं दी जिस वजह से किसानों की हालत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई। ठिकाने ने लगान हासिल करने के लिए लगान की दरें बढ़ा दी। जनवरी 1927 में मेवाड़ के बंदोबस्त अधिकारी ट्रेंच बिजोलिया आए। किसानों ने उन्हें अपनी शिकायतें बताई और ट्रेंच ने पंचायत और ठिकाने के बीच एक समझौता कराया। लेकिन थोड़े दिनों बाद ही माणिक्य लाल वर्मा जी को गिरफ्तार कर लिया गया। पथिक की जेल की सजा काटकर उदयपुर आ गए लेकिन उन्हें मेवाड़ से निर्वासित कर दिया गया। किसानों ने ठिकाने की ज़्यादतियों से परेशान होकर अपने खेत खाली छोड़ दिए। वे यह सोच रहे थे कि खेत खाली छोडऩे की वजह से ठिकाना कोई कार्यवाही नहीं करेगा लेकिन उनकी आशाओं के उलट उनकी जमीने नीलाम होने लगीं। किसान फिर आग बबूला हो गए। इसी बीच पथिक जी और रामनारायण चौधरी इस आंदोलन से अलग हो गए। अब आंदोलन का नेतृत्व सेठ जमनालाल और हरीभाउ उपाध्याय के हाथों में आ गया। उपाध्याय ने महात्मा गांधी को बिजोलिया में हो रहे आंदोलन के संदर्भ में एक पत्र लिखा। गांधीजी की सलाह पर मालवीय ने मेवाड़ के प्रधानमंत्री से इस संबंध में बात की और फिर एक समझौता हुआ जिसके अनुसार किसानों की सारी मांगे स्वीकार की गई परंतु इस समझौते का ईमानदारी से पालन नहीं किया गया। इस बात पर माणिक्य लाल वर्मा जी ने किसानों का एक प्रतिनिधि मंडल लेकर उदयपुर के महाराणा से मिलने गए लेकिन महाराणा के प्रधानमंत्री सुखदेव प्रसाद ने वर्मा जी को वहीं गिरफ्तार कर लिया और डेढ़ साल तक नजरबंद रखने के बाद उन्हें रिहा कर दिया। 1941 में मेवाड़ के नए प्रधानमंत्री के रूप में सर टी. विजय राघवाचार्य ने पदभार संभाला। उन्होंने राजस्व विभाग के मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मेहता को बिजोलिया समस्या का अंतिम समाधान करने के लिए भेजा। उन्होंने माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में किसानों की मांगें मानकर उनकी जमीनें उन्हें वापस दिलवा दी। यह माणिक्यलाल वर्मा जी के जीवन की पहली बड़ी सफलता थी। इस आंदोलन ने राजस्थान की अन्य रियासतों को भी एक नई चेतना प्रदान की। बिजोलिया का किसान आंदोलन भारत का पहला व्यापक, शक्तिशाली, संगठित और सफल किसान आंदोलन था।
बिजोलिया किसान आंदोलन की प्रमुख विशेषताएं
बिजोलिया का किसान आंदोलन अपने आप में एक अनूठा किसान आंदोलन था। बिजोलिया किसान आंदोलन आंदोलन पूरी तरीके से अहिंसात्मक था। इस आंदोलन को माणिक्य लाल वर्मा, हरीभाऊ उपाध्याय, विजय सिंह पथिक, रामनारायण चौधरी और सेठ जमनालाल जैसे कई बड़े नेताओं का नेतृत्व देखने का मौका मिला। बिजोलिया किसान आंदोलन ने राजस्थान के कई पड़ोसी राज्यों में भी किसानों में जागरूकता पैदा करने का काम किया। इस आंदोलन को पूरी तरीके से स्थानीय पंचायतों द्वारा चलाया गया। आम जनता या बाहरी लोगों का इस आंदोलन में किसी भी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ। बिजोलिया किसान आंदोलन में महिलाओं और बालकों ने भी बहुत उत्साह और साहस से भाग लिया। बिजोलिया किसान आंदोलन ने गांव के लोगों में देशभक्ति की भावना पैदा करने का काम किया।
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