सुनील पंडित
मेवाड़ की वीर धरा रत्नों की खान रही है। इन्हीं रत्नों में एक रत्न हुए बावजी चतुर सिंह जी। साहित्यशिल्पी, उपदेशक, संत, लेखक, कवि के रूप में उनकी ख्याति का प्रकाश काफी दूर-दूर तक फैला है। बावजी ने शब्दों के चुगटियो (मेवाड़ी दोहे) से सोई हुई आत्मा पर कड़ा प्रहार कर लोक मानस को जागृत रखा। राजसी ठाठ-बाठ को छोड़कर पगरखी, धोती, पछेवड़ी और मेवाड़ी पगड़ी पहनकर शांति की खोज मेंं निकले इस लोकसंत ने ताउम्र सादगी का जीवन जिया। पाखंड, आडंबरों, दिखावे से कोसो दूर रहे और दूसरों को भी अपने दोहे के माध्यम से नसीहत देते रहे। संस्कृत के विद्वान बावजी ने मेवाड़ी, ब्रज और हिन्दी का ऐसा रसायन तैयार किया कि जिसे पीकर साहित्यप्रेमी का मन ईश्वर भक्ति में झंकृत हो उठे। बावजी की उम्दा लेखनी में इतनी सादगी, संजीदगी, गंभीरता और रसास्वाद था कि बिना दोहे बोले आज भी गांवों में चौपालों पर होने वाली सभाएं, मेल-मिलाप, समाजिक आयोजन रसहीन है। उनके लिखे दोहों, पदावलियों, दोहवालियो में कबीर, मीरा, नानक, दादू, रज्जब जैसी चोट है तो, उनकी भाषा में वही सरलता, भावों में वही गंभीरता। वेअपने काव्य में रेल, हवाई जहाज, फोनोग्राम आदि प्रतिकों का सुंदर ढंग से उपयोग किया। बावजी ने कुल 18 ग्रन्थों की रचना की। इनमे मेवाड़ी बोली में लिखी हुई गीता पर गंगा-जळी टिका सबसे उत्तम और अनूठी पुस्तक है। बावजी की कलम समाज सुधार, शिक्षा, भक्ति, वैराग्य, संसार की नश्वरता आदि पर ऐसी चली की आज तक उनका कोई मुकाबला नहीं कर पाया। वीर कुल में जन्म होने के करना बावजी वीररस से भी अपने आप को अलग नही कर पाए। ह्दय में जोश, उत्साह और जज्बे का संचार भी उनकी नीति, वैराग्य और उपदेशपरक कविताओं में अनान्यस ही हो जाता है। प्राचीनता के प्रेमी होने के कारण आधुनिक शिक्षा, सभ्यता और शिष्टाचार के खिलाफ थे। उनकी रचनाओं में ईश्वर ज्ञान और लोक व्यवहार का सुन्दर मिश्रण है। कठिन से कठिन ज्ञान तत्व को हमारे जीवन के दैनिक व्यवारों के उदाहरणों से समझाते हुए सुन्दर लोक भाषा में इस चतुराई से ढाला है कि उनके गीत, उनमें बताई गई बात एक दम गले उतर कर हृदय में जम जाती हैं, मनुष्य का मस्तिष्क उसे पकड़ लेता है।

आइये उनकी अनछुई बातों से आपको करते है रूबरू
जीवन परिचय : मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के तृतीय पुत्र बाघसिंह के वंश में महाराजा सूरतसिंह ठिकाना करजली के घर मां कृष्णकंवर की गर्भ से महाराज चतुर सिंह जी बावजी का जन्म वि.सं. 1936 माघ कृष्णा चतुर्दशी सोमवार 9 फरवरी 1880 को हुआ। आप महाराणा फतेहसिंह के भतीजे और कार्तिशेष महाराणा भगवत सिंह के पिता थे। बावजी का विवाह जयपुर के छापोली ठिकाने में शेखवातजी के साथ हुआ। उनकी पुत्री सायकंवर का विवाह गुजरात के विजयनगर के महाराजा हमीर सिंह के साथ हुआ था। आषाढ़ कृष्ण नवमी वि.सं. 1986 यानि 1 जुलाई 1929 को असार संसार से उनका निर्वाण हुआ था।
बावजी की कृतियां
चतुर प्रकाश, हनुमत्पंचक, अंबिकाष्टक, शेष चरित्र, चतुर चिंतामणि : दोहावली/पदावली, समान बत्तीसी, शिव महिम्न: स्तोत्र, चंद्रशेखर स्तोत्र, श्री गीताजी, मानव मित्र रामचरित्र, तुही अष्टक, अनुभव प्रकाश, ह्दय रहस्य, अलख पचीसी, बाळकां री वार, बाळकां री पोथी, लेख संग्रह, सांख्य कारिका, तत्व समास, योग सूत्र आदि।
ऐसे शुरू हुआ संत बनने का सफर
महाराज साहब की धर्मपत्नी का देहान्त होने के छोड़े दिनों के बाद उनकी एकमात्र पुत्री भी चल बसी। फलत: बावजी का झुकाव ईश्वर के प्रति बढ़ गया। बचपन के संस्कार और समय की चोट से बावजी की प्रतिभा नीखरने लगी। योगाभ्यास करने के लिए वे नर्बदा नदी के तट पर रहने वाले योगी कमल भारती के पास पहुंचे। उन्होंने बाठरड़ा के रावतजी दलेल सिंह के भाई गुमान सिंह जी को गुरु बनाने की सलाह दी। उत्कट इच्छा शक्ति देखकर गुमान सिंह जी ने उनको अपना शिष्य बनाया। वे सुखेर में एक झोपड़ी बनाकर रहने लगे थे। बावजी ने दोहो में गुमाना, गुमान और काका कहकर अपने आप को गुरु से जोड़े रखा।
बावजी के लोक प्रचलित दोहे
पगे पंगरखी गांव री, ऊंची धोती पेर। कांधे ज्ञान पचेवड़ी चतुर चमक चहू फेर।
रेटं फरै चरक्यो फरै, पण फरवा मे फेर। वो तो वाड़ हर्यो करै, वी छूंता रो ढेर।
पर घर पग नी मैलणो, बना मान मनवार। अंजन आवै देखनै, सिंगल रो सतकार।
तिलक करे छापा करे, भगमा भेष वणाय। चतुर सन्त री सादगी, सन्ता ऊपर जाय।
मानो या न मानो पणे कैणो मारो काम। कीका डांगी रे आंगणे खेलत देख्या राम।
कई काठ ने किस्त दे, किस्त काल री टाल। झूठी बाजी जीत ने, मनख जलम मत हार।मौत भुलावे जगत को, जगत भुलावे मोत। मौज जगत के जंग में, जीत मौत की होत।