दरियाव सिंह की खास रिपोर्ट
The Udaipur Updates की टीम ने इस दीपावली पर नाथद्वारा का रूख किया। नाथद्वारा में इसलिए ताकि यहां गोवर्धन पूजा पर होने वाली अनूठी रस्म को अलग नजरिए से देख सके और नए नजरिए से आमजन को दिखा सके। हम रूके तीन दिन तक नाथद्वारा और रूप चैदस, गोवर्धन पूजा और अन्न्ाकूट देखा। जो हमने देखा वो शायद अलग ही नजारा था। कहते है पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय की प्रधान पीठ है नाथद्वारा। नाथद्वारा में श्रीनाथजी प्रभु करीब साढ़े 300 सालों से बिराजमान है। नाथद्वारा पूरी दुनिया में कृष्ण के अनूठे मन्दिर और परम्परा के लिए भी मशहूर है। यहां का हवेली संगीत, नाथद्वारा की पिछवाई कला, तस्वीर, मीनाकारी का अपना अलग स्थान है। दीपावली यहां धूमधाम से और अनूठे तरीके से मनाई जाती है। नाथद्वारा सहित सम्पूर्ण कृष्ण मंदिरों में गोवर्धन पूजा से लेकर गोपाष्ठमी गायों को समर्पित त्योहार के रूप में मनाया जाता है। गाये श्रीनाथजी को सबसे प्रिय है। जहां जहां भी भगवान निवास करते है गायों को अपने ह्रदय से लगाकर ही रखते है। श्रीनाथजी की यूँ तो कुल 12 गोशालें है मगर प्रधान गोशाला है नाथूवास गोशाला। यहां दशहरे से गायों को रिझाने के ग्वालबाल तैयार हो जाते है। शरद पूर्णिमा से गायों को सजने-संवारने के काम शुरू हो जाता है। नाथवास स्थित गोशाला में ग्वालबाल इनको मोरपंख की पट्टियों, ठोकर, ठिपारे, मेहंदी और रंग-बिरंगे कलर से सजाते है। रूप चैदस के दिन गायों को अंतिम बार फाइनल रूप से तैयार करने का काम नाथवास गोशाला में किया जाता है। यहां से दीपावली के दिन गायें श्रीनाथजी मन्दिर पधारती है। खास बात ये है कि खेलनी गायें उसे कहते है जिसके साथ ग्वालबाल खेलते है। जबकि स्वेत वन उन गायों को कहते जो सफेद कलर की गायें होती है। सफेद कलर से याद आया श्रीनाथ मन्दिर में अभी भी नन्दवंश की गायें है, जो कामधेनु गाय की वंशज मानी जाती है। ये गायें विशेष है जिसकी गोवर्धन पूजा के दिन पूजा की जाती है। एक ग्वालबाल ने ये भी बताया कि किसी जमाने में इन गायों को सोने और चांदी की टोकरे और घण्टी धराई जाती थी जो श्रीनाथजी मन्दिर से विशेष रूप से आती थी। दीपावली के दिन सभी गायें श्रीनाथजी मन्दिर के पास बनी गोशाला में ठहरती है और फिर इसी दिन कान जगाई की रस्म होती है। कान जगाई की रस्म में तिलकायत महाराजश्री नन्दवंश की गायों के कान में बेगी पधारियो कहकर गोवर्धन पूजा के दिन जल्दी आने का निमंत्रण देते है। गोवर्धन पूजा के दिन श्रीनाथ मन्दिर के पास बनी गोशाला से ही गायें मन्दिर पधारती है। इससे पूर्व मन्दिर की परिक्रमा करते हुए ग्वालबाल हिड़ गायन करते है। इसके बाद ग्वालबाल गायों को रिझाते और खेलाते हुए मन्दिर में ले जाते है यहां इस बार मुख्याजी ने गायों की पूजा की इसके बाद गायों ने गोवर्धन गचरने की रस्म निभाई। इस रस्म के बाद गाये वापिस गोशाला आई और गोविन्द चोक में अंतिम बार ग्वालों ने गायों को कुंपी से भड़काकर खूब रिझाया। यहां से गोधूलिक वेला में गायें पुनः अपने निध धाम नाथूवास गोशाला पधारी।
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क्या होती है कंूपी
कूंपी चमड़े की बनी हुई होती है। ये कमर में लटकी रहती है ग्वालबालों के। जब ग्वालबाल गायों के नजदीक जाते है तो इसी को बजाकर उसको भड़काते है। इसमें रखें पत्थरों से घूंघरू जैसी आवाज आती है।
हिड़ गायन
हिड़ गायन ठाकुरजी के और गायों के भाव से गाया जाने वाला पुष्टिमार्गीय परंपरा में गीत है। जो विशेषशैली में ग्वालबाल गाते है। हिड़ गायन गौशाला में हमने रूपचैदस पर गायों को संजवाने के बाद सुना और फिर गोवर्धन पूजा के दिन गायों के मंदिर जाने से पूर्व सुना