डाका तो नहीं डाला, थोड़ी सो बरसी है..

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अरे बारिश ही तो हुई है, चोरी तो नहीं की है
बारिश से न केवल जनजीवन का बल्कि जनभावनाओं का भी गहरा ताल्लुक है। तभी तो मामूली बारिश होते ही हर तरफ बरबस खबरें हेडलाइन बन जाती है। खबरों की दुनिया और इस दुनिया के लोग जिन्हें हम पत्रकार कहते है उनका तो कहना ही क्या। बारिश के पहले दिन से ही न्यूजरूम में बारिश के पीछे डंडा लेकर बैठे रहने वाली ये कौम बारिश होने में भी हेडिंग ढूंढने के प्रयास करती है और नहीं होने पर भी। जैसे सात दिन बारिश नहीं हुई तो पिछले साल का रिकॉर्ड लेकर आ जाएंगे। बताने लगेंगे की इस साल कितनी फीसदी बारिश हुई। एक साल पर आंकड़ा सेट नहीं हुआ तो 2 और 2 पर सेट नहीं हुआ तो आगे भी बढ़ता जाएगा। अब भैया कोई डंडा लेकर वास्तविकता में पड़ ही जाए तो फिर साल को भी साला साल छोड़ना पड़ेगा। इसके इतर अगर बारिश हुई तो उसकोचटपटी बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना, ताकि उस दिन अखबार ज्यादा बिके। मैं खुद भी इसी कौम का एक हिस्सा हूँ मगर आज बच्चा बनकर सोचूंगा तो अलग ही मंजर निकलकर आएंगे। मैं गांव का आदमी हूँ। बचपन में हमारा कच्चा मकान हुआ करता था। बारिश में हम भगवान से प्रार्थना करते थे कि बारिश कम हो जाये। क्यों कि कच्चे मकान के हर हिस्से से पानी टपकता था। बाऊजी (नानाजी) हमारे लिए कभी इधर तो कभी उधर बर्तन रखने की सेवा निभाते थे। ताकि हम अच्छी नींद में सो सके और सुबह नियत समय पर स्कूल जा सके। तब गांव में हालात ये होते थे कि बारिश का पानी जिस वेग से आता था उसी वेग से गलियों, चौराहों की टोह लेते हुए गांव के परगने से दूर चला जाता। जिसे हम वाला कहते है। वाला यानी बड़ा प्राकृतिक नाला।  उसी प्राकृतिक नाले में एक श्मशान हुआ करता था जो आज भी है। कभी किसी को गाली देनी होती तो भी लोग यही कहते….थने वाल्ला में मेलु रे। खेर बारिश की जमघट कई दिनों तक और सप्ताह तक चलती रहती थी। इसके बावजूद पानी गांव के उबड़-खाबड़ रास्ते से होता हुआ गांव के बाहर बने तालाब में जाकर समा जाता था। एक गांव का तालाब हमेशा दूसरे गांव के तालाब से जुड़ा रहता है। जब दोनों का मेल होता है उसको हम छापड़ा कहते है। ऐसे पानी निकासी से लेकर संग्रहण तक सब कुछ बिना कुछ किये ही हो जाता है। जब पानी संग्रहित होकर तालाब में ठहर जाता था तब भगवान को झूला झुलाने ले जाया जाता है। पूरा गांव इस प्राकृतिक बने रास्तों से ही गांव के ठाकुरजी को झुलाने लेकर जाते। आज भी गांव में ये ईश्वर और प्रकृति को धन्यवाद कहने का अवसर होता है जिसे हम जलझूलनी ग्यारस कहते है। इसी ग्यारस को भगवान जन्म लेने के बाद पहली बार नवल जल में स्नान करते हैं। अबीर गुलाल की बारिश होती है। गांव में उत्सव मनाया जाता है। प्रसाद बंटता है और ठाकुरजी को इसी जल से अंकुरित हुए अन्न को भोग स्वरूप धराया जाता है। लेकिन शहरों में इसके उलट होता है। मामूली बारिश आई नहीं कि हाहाकार मचने लगता है। हर तरफ तबाही के मंजर ही मंजर नजर आते है। वाट्सअप यूनिवर्सिटी पर बारिश ट्रेंडिंग पर आ जाती है। लोग बारिश के एक से एक फोटो मुंह पर मारकर होली खेलता है। जो उस क्षेत्र के लोग होते हैं उनके घर पानी में तैरने लगते है। कई आपदा प्रबंधन की टीमें मुस्तेदी के साथ मैदाने जंग का ऐलान करती है। मौसम विभाग पहले से ही भविष्यवाणी पर भविष्यवाणी कर कर के इंद्रदेव को नाराज कर चुका होता है। नेता हर बार अर्जी लेकर जाते है और हर बार इंद्रदेव मौसम विभाग पर ठीकरा फोड़ता है। मौसम विभाग के आगे से ऐसी कोई गलती नहीं करने के लिखित आश्वासन के बाद नावे दौड़ने लगती है। भगवान इंद्र भी इसीलिए मान जाते है कि आखिरकार वैसे भी 4 महीने की विदाई होनी ही है। अब सवाल ये उठता है कि ऐसी नोबत क्यों आई कि बारिश में हाहाकार मचाना पड़ा। इस सवाल के हम खुद जिम्मेदार है। न हमने जंगल बचाये, न जमीन और न प्रकृति। जिसको जहां मौका मिला बना दिए कंक्रीट के जंगल। मामूली गली में भी पैर धरने की जगह नहीं बची। कहाँ से निकलेगा पानी, कहां जाए बेचारा। नालों पर अतिक्रमण, नदी पर अतिक्रमण, सागर पर अतिक्रमण। बारिश का मौसम है, उसमें बारिश नहीं होगी तो क्या होगा। जैसे सर्दी में सर्दी, गर्मी में गर्मी वैसे ही बारिश में बारिश। एक अनुमान के मुताबिक जितना तुम खर्च करते हो उससे 200 गुणा अधिक पानी चाहिए। कितने कल-कारखाने है, कितने व्यवसाय है, कितने रोजगार है, कितने लोग है जिनका जीवन पानी के बगैर नहीं चल सकता। यहां तक की आपकी गाड़ी चमकाने के लिए भी तो पानी चाहिए। बाबू मोशाय बारिश अपना काम ईमानदारी से कर रही है करने दो। मैं हर बार बारिश से बात करता हूँ तो लगता है बारिश कह रही है कि डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं है। हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो बरसी है।
सुनील पंडित (प्रकृति प्रेमी लेखक और पत्रकार)

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