गवरी “नाटक” नहीं मेवाड़ की विरासत को संभालने वाली चलती फिरती “फिल्मसिटी” है….

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                 श्रीमद एकलिंगो विजयते

इस आर्टिकल में आप जानेंगे कि क्या होती है गवरी। गवरी नृत्य के साथ भील समाज के लोग कैसे सवा महीने साधना करते है। गवरी कैसे मेवाड़ का पर्याय बनी। कैसे मेवाड़ में खासकर उदयपुर सम्भाग में ठंडी राखी के बाद खेलते है गवरी। गवरी नृत्य है या फिर एक अनुष्ठान जो हमारी संस्कृति से हमें जोड़े रखती है।  भील समाज की परंपरा से गवरी का क्या है ताल्लुक। तो चलिए हम बताते है मेवाड़ के भील समाज के लोगों द्वारा खेली जाने वाली गवरी और उसकी विशेषताएं।

मेवाड़ के लोकसंत, समाज सुधारक, कवि, लेखक और राजश्री घराने के प्रेरणापुंज बावजी हजुर चतुर सिंह जी ने लिखा है कि-
भावे जो भुगताया, दूजा दुःख दीजे सबी।
खोलां मूं खसकाय, मत दीजे मातेसरी।।
मेवाड़ हमेशा से शिव और पार्वती का उपासक रहा है। ऋषि हरित राशि और बप्पा रावल ने इस परम्परा को आगे बढ़ाकर मेवाड़ को हमेशा अजेय और अभेद बनाये रखा। हमारे मेवाड़ में यूँ तो 12 महीने यानी कि 365 दिन हर रोज वार-त्योहार की बहार है मगर खासकर मेवाड़ में भादो और आधा आसोज देवी आराधना का पर्व माना जाता है। हमारे यहां कहा जाता है कि भादो भीला रो…यानी ये महीना हम भीलों को समर्पित करते है और उन्हीं की साधना से मेवाड़ की कली, कली में देवी का वास होता है। इसी के प्रताप से हमने अकबर की मुगलिया सल्तनत को धूल चटा दी थी। प्रताप खुद चावण्ड की देवी चावण्डा के उपासक थे। जब मेवाड़ पर मुगलों का आक्रमण था तब जंगलों में रहने वाली आदिवासी भीलों की जनता ने कंधे से कंधा मिलाकर मेवाड़ को बचाकर रखा। तब से हमारे मन में भीलों के प्रति सम्मान और बढ़ गया। अब आते है गवरी पर। गवरी के लिए एक लाइन में कुछ लिखना हो मुझे तो बस इतना लिखूंगा कि गवरी हमारे मेवाड़ की विरासत को सहेजने वाली लाइब्रेरी नहीं बल्कि चलती फिरती फ़िल्मसिटी है। जिसमें किरदार भी है, कयामत भी है, कायनात भी है और कमाल भी है। गवरी होती क्या है, गवरी के किरदार कैसे होते है,  गवरी सिर्फ एक नृत्य है या फिर नृत्यानुष्ठान है सब बताएंगे आपको इस आर्टिकल में।
गवरी : ये नाटक नहीं, नृत्यानुष्ठान है
गवरी का नाम सुनते ही शरीर के हर एक अंग-अंग में मस्ती और आनंद की बयार चलने लगती है। चाहे गवरी देखी हो या न देखी हो मगर इन नृत्यानुष्ठान का केवल नाम ही अपने आप में एक सात्विक साधना है। जो भील समाज के लिए किसी ईश्वरी आशीर्वाद से कम नहीं है। पूरे सवा महीने खेले जाने वाला यह लोकनृत्य मेवाड़ में ही उत्साह के साथ खेला जाता है। देवी आवरा ऐ….. की विशेष शैली में लोकनृत्य गवरी का गायन जितना अनूठा है उतना ही उनकी वेशभूषा और किरदार भी। मुझे बड़ा ताज्जुब होता है कि आज के हाइटेक जमाने में जहां बड़े बड़े स्टूडियो खुल गए है, नई-नई तकनीकियां विकसित हो गई है और कला पर कई तरह के रिसर्च किए जा रहे है, वहीं यह लोकनृत्य अपनी धुन और अपनी अल्हड़ मस्ती में सौंधी महक हर साल बिखेरता जा रहा है। मगर खेद है इस बार चौराहे इसकी जमघट से वीरान हैं। 40 दिन भील समाज को ऐसे गुजारने होते है जैसे कोई पंडित पूरे 4 घंटे हवन अनुष्ठान में बैठकर अनुष्ठान करता है। परिवार से दूर रहना, हरी सब्जी का सेवन नहीं करना, पैरों में जूते नहीं पहना, एक समय भोजन करना जैसे कठिन काम पवित्रता के इर्द-गिर्द लाकर खड़ा करते है। भीलों के लिए सबसे कठिन इसलिए भी होता है कि इनकी बिरादरी में मदिरा पान सालों से चला आ रहा है। मगर जब कोई गवरी में शामिल हो गया बस उसे ये व्रत निभाना ही है। ये एक तरह से सामाजिक प्रतिबंध भी है, जिससे तोड़ना किसी के बस में नहीं होता है। देश-दुनिया में कितने ही करप्शन हो रहे है लेकिन आज तक मजाल है कि किसी भील समाज के व्यक्ति ने इस व्रत को लेकर कोई गलत काम किया हो। और तो और गवरी खेलने के दौरान गांव से यह लाखों रुपए के जेवर और परिधान उधार लाते है, सजने-संवरने के लिए लेकिन कभी भी इनका इमान नहीं डगमगाया। गवरी में राई और भूड़िया की भूमिका विशेष रहती है। रक्षाबंधन पर खांडे को राखी बांधने के बाद मेवाड़ में थाली-मांदल की थाप पर हर गली-माेहल्लों में गवरी रमी जाती है मगर इस बार कोरोना के तांडव ने सालों की साधना को खंडित करने का काम किया।
मान्यता : पुराण में कथा का नायक ‘चूड़’ मिलता है। यही चूड़ धीरे-धीरे ‘बूड़’ और फिर ‘बूड’ से ‘बूढ़िया’ बन गया है। इन ग्रामीणों में यह मान्यता है कि शिव हमारे जंवाई हैं और गौरजा अर्थात पार्वती हमारी बहन-बेटी हैं। कैलाश पर्वत से गौरजा अपने पीहर मृत्यु लोक में मिलने आती हैं। गवरी खेलने के बहाने सवा माह तक अलग-अलग गाँव में यह सबसे मिलती हैं। गवरी में सभी कलाकार पुरुष होते हैं। महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष ही निभाते हैं। संपूर्ण गवरी में नायक बूड़िया पूरी गवरी का नेतृत्व करता है। दोनों राइयाँ लाल घाघरा, चूनरी, चोली तथा चूड़ा पहने होती हैं। इनका दाढ़ी-मूँछ वाले मुंह के भाग को कपड़े से ढँका रहता हैं। गवरी के विशिष्ट पात्रों में झामटिया पटकथा की प्रस्तुति देता है तथा कुटकड़िया अपनी कुटकड़ाई शैली से गवरी मे हास्य व्यंग्य का माहौल बनाए रखता है।
विभिन्न खेल : गवरी के मुख्य खेलों में मीणा-बंजारा, हठिया, कालका, कान्ह-गूजरी, शंकरिया, दाणी जी, बाणियां चपल्याचोर, देवी अंबाव, कंजर, खेतुड़ी, बादशाह की सवारी जैसे कई खेल अत्यंत आकर्षक व मनोरंजक होते हैं। भीलों के अनुसार शिव आदिदेव हैं। 

अगले आर्टिकल में आप पढ़ेंगे
पृथ्वी पर पहला पेड़ ‘बड़’ अर्थात ‘वटवृक्ष’ कौन लेकर आई। पेड़ बचाने की पहली मुहिम कहा से शुरू हुई और उसका गवरी से क्या सम्बन्ध है। पढ़िए हमारे साथ।
सुनील पंडित (लेखक गवरी के विशेषज्ञ है)

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